Kawad Yatra: कांवड़ यात्रा का महत्व, राम से परशुराम तक, कितना पुराना है कांवड़ यात्रा का इतिहास?

sangamsamachar.com
sangamsamachar.com
6 Min Read

कावड़ यात्रा का महत्व…

Kawad Yatra कावड़ यात्रा का महत्व शंकर भगवान का महत्व कांवड़ यात्रा शिव भक्तों की आस्था, भक्ति और तपस्या का प्रतीक है। भोले को पूजने वालों का मानना है कि सावन में भगवान शंकर को गंगाजल अर्पित करने से उनका आशीर्वाद मिलता है और आध्यात्मिक की प्राप्ति होती है। साथ ही कांवड़ यात्रा कनरे से परिवार की उन्नति होती है और कांवड़ यात्रा करने वाले पर महादेव की असीप कृपा होती है। कांवड़ यात्रा शिव भक्तों की एक वार्षिक तीर्थयात्रा है। सावन के पवित्र महीने के दौरान, लाखों तीर्थयात्री भगवान शिव की पूजा करने के लिए पवित्र गंगा जल लेकर कांवड़ यात्रा की शुरुआत करते हैं।

कावड़ यात्रा का नियम..

  1. कांवड़ को हमेशा अपने सिर पर रखें और इसे कभी जमीन पर न रखें. 

2. कावड़ को उठाने से पहले और रखने के बाद दोनों हाथों से प्रणाम करें. आहार और व्यवहार : 

3. यात्रा के दौरान सात्विक आहार ग्रहण करें. क्रोध, ईर्ष्या और अन्य नकारात्मक भावनाओं से बचें.भगवान का ध्यान किया जाता है।

4. कावड़ मे गंगाजल भरने से लेकर उसे शिवलिंग पर अभिषेक तक का पूरा सफर भक्त पैदल, नंगे पांव पूरा करना होता है।

5. कावड़ यात्रा के दौरान नशा नहीं करना चाहिए और मांसाहार का सेवन नहीं किया जाता है।

6.कांवड़ यात्रा में किसी को अपशब्द बोलने पर पुण्यफल नष्ट हो जाता है।

भगवान परशुराम ने कि पहली कांवड़

कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का कांवड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था। परशुराम, इस प्रचीन शिवलिंग का जलाभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लेके आए थे। आज भी इस परंपरा का अनुपालन करते हुए सावन के महीने में गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर लाखों भक्त ‘पुरा महादेव’ का जलाभिषेक करते हैं। गढ़मुक्तेश्वर का वर्तमान नाम ब्रजघाट भी है।

श्रवण कुमार कांवड़ियां-

वहीं कुछ विद्वानों का कहना है कि सर्वप्रथम त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली बार कांवड़ यात्रा की थी। माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने के क्रम में श्रवण कुमार ने हिमाचल के ऊना क्षेत्र में थे जहां उनके अंंधे माता-पिता ने उनसे मायापुरी यानि हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा जताई थी। माता-पिता की इस इच्छा को पूरी करने के लिए पुत्र श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठा कर हरिद्वार लाए और उन्हें गंगा स्नान कराया। वापसी में वे अपने साथ गंगाजल भी ले गए. इसी मान्यता को कांवड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है।

भगवान राम ने कि थी कांवड यात्रा की शुरुआत-

कुछ मान्यताओं के अनुसार भगवान राम पहले कांवडियां थे। उन्होंने झारखंड के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर, बाबाधाम में शिवलिंग का जलाभिषेक कर आशीर्वाद प्राप्त किया था।

रावण ने की थी इस परंपरा की शुरुआत-

पुराणों के अनुसार कावंड यात्रा की परंपरा, समुद्र मंथन से जुड़ी है। समुद्र मंथन से निकले हलाहल विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए। परंतु विष के नकारात्मक प्रभावों ने शिव को घेर लिया। शिव को विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त कराने के लिए उनके अनन्य भक्त रावण ने ध्यान किया। तत्पश्चात कांवड़ में जल भरकर रावण ने ‘पुरा महादेव’ स्थित शिवमंदिर में शिवजी का जल अभिषेक किया। इससे शिवजी विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए और यही मान्यता से कांवड़ यात्रा की परंपरा का प्रारंभ हुआ।

देवताओं ने सर्वप्रथम किया था जलाभिषेक

कुछ मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन से निकले हलाहल के नकारात्मक प्रभाव को कम करने के लिए शिवजी ने शीतल चंद्रमा को अपने माथे पर धारण कर लिया था। इसके बाद सभी देवता शिवजी पर गंगाजी से जल लाकर जलभिषेक करने लगे। सावन मास में कांवड़ यात्रा का प्रारंभ यहीं से हुआ।

कावड़ यात्रा का पुण्य..

कांवड़ यात्रा भगवान शिव को प्रसन्न करने और उनकी कृपा पाने का एक अचूक उपाय है. मान्यता है सावन के पावन महीने में कांवड़ उठाने वाले भक्त के सभी पाप शाप नष्ट हो जाते हैं. कांवड में जलभकर शिवलिंग का अभिषेक करने वालों पर सालभर भोलेनाथ की कृपा बरसती है. दुख, दोष, दरिद्रता से मुक्ति मिलती हैपुराणों व शास्त्रों में बताया गया है कि कांवड़ यात्रा करने से भगवान शिव बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं और अपने भक्त की सभी मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। शिव के भक्त बांस की लकड़ी पर दोनों ओर की टोकरियों में गंगाजल भरकर पैदल यात्रा करते हैं और रास्ते भर बम बम भोले का जयकारा लगाते हैं।

Share this Article
Leave a comment