गुरू पूर्णिमा : अज्ञानता से ज्ञान की ओर ले जाने वाला पर्व

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गुरु पूर्णिमा

आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाता है, यह पर्व जून से जुलाई के बीच में आता है। इस वर्ष आज 21 जुलाई को सम्पूर्ण देश में बड़े ही धूम धाम से गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाया जा रहा है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में गुरु का विशेष महत्व होता है, भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान से भी बढ़कर माना गया है। गुरु केवल दो अक्षरों का मेल है किंतु इस शब्द में इतनी ताकत है कि यह अज्ञानी को भी ज्ञान के मार्ग पर ला दे। संस्कृत में ‘ गु ‘ का अर्थ होता है – अंधकार (अज्ञान ) एवम् ‘ रू ‘ का अर्थ होता है – प्रकाश (ज्ञान)। अर्थात अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाला ही, गुरु कहलाता है।

गीली मिट्टी अनगढ़ी, हमको गुरुवर जान,
ज्ञान प्रकाशित कीजिए, आप समर्थ बलवान। 

गुरु पूर्णिमा क्यों मनाई जाती है ?

यह त्यौहार पारंपरिक रूप से ऋषि व्यास के सम्मान में मनाया जाता है, जिन्हें महाभारत और पुराणों सहित प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों और पौराणिक कथाओं में सबसे प्रतिष्ठित गुरुओं और ऋषियों में से एक माना जाता है। इसी दिन महर्षि वेदव्यास का जन्मदिवस माना गया है तथा पौराणिक मान्यता के अनुसार इसी दिन वेदव्यास जी ने चारो वेदों की रचना की थी। इसी दिन भगवान शिव द्वारा अपने शिष्यों को ज्ञान दिया गया था। इस त्यौहार की प्राचीन भारतीय परंपराओं में गहरी जड़ें हैं, जो हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म में भी महत्व रखती हैं।

बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग, भगवान बुद्ध की याद में गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाते है। इनकी मान्यता के अनुसार भगवान बुद्ध ने इसी दिन सारनाथ में अपना पहला उपदेश दिया था और तबसे ही बौद्ध धर्म की शुरुआत हुई। आधुनिक दौर में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने अध्यात्मिक गुरु श्रीमद राजचंद्र को श्रद्धांजलि देने के लिए भी गुरु पूर्णिमा का दिन ही चुना था।

गुरु पूर्णिमा का संदेश

हिंदू धर्म में हर साल आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को गुरु पूर्णिमा मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा के दिन स्नान-दान और उपवास के कार्य शुभ फलदायी माने गए हैं। इस दिन लोग गुरुओं का आशीर्वाद लेने उनके पास जाते हैं। मान्यता है कि गुरु पूर्णिमा के दिन गुरुओं का आदर-सम्मान करने से जीवन में सकारात्मक बदलाव आते हैं

गुरु का महत्त्व

भारत में प्राचीन काल से ही गुरुओं की भूमिका काफी अहम रही है. चाहे प्राचीन कालीन सभ्यता हो या आधुनिक दौर, समाज के निर्माण में गुरुओं की भूमिका को अहम माना गया

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।

गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष।।

जब तक गुरु की कृपा प्राप्त नहीं होती, तब तक कोई भी मनुष्य अज्ञान रूपी अधंकार में भटकता हुआ माया मोह के बंधनों में बंधा रहता है। गुरु के बिना व्यक्ति को सत्य और असत्य के भेद का पता नहीं चलता, उचित और अनुचित का ज्ञान नहीं होता। इसलिए सभी के जीवन में गुरु का होना बहुत आवश्यक है।

रोचक कहानी

एक बार की बात है नारद जी, विष्णु भगवान से मिलने गए। भगवान ने उनका बहुत सम्मान किया, जब नारद जी वापस गए तो विष्णुजी ने कहा हे लक्ष्मी जिस स्थान पर नारद जी बैठे थे, उस स्थान को गाय के गोबर से लीप दो। जब विष्णुजी यह बात कह रहे थे तब नारदजी बाहर ही खड़े थे। उन्होंने सब सुन लिया और वापस आ गए और विष्णु भगवान जी से पुछा हे भगवान जब मै आया तो आपने मेरा खूब सम्मान किया पर जब मै जा रहा था, तो आपने माता लक्ष्मी से यह क्यों कहा कि जिस स्थान पर नारद बैठा था उस स्थान को गोबर से लीप दो। भगवान श्रीहरि ने कहा हे नारद मैंने आपका सम्मान इसलिए किया क्योंकि आप देवऋषि है और मैंने देवी लक्ष्मी से ऐसा इसलिए कहा क्योंकि आपका कोई गुरु नहीं है, आप निगुरु है। जिस स्थान पर कोई निगुरा बैठ जाता है वो स्थान गन्दा हो जाता है।

यह सुनकर नारद जी ने कहा हे भगवान आपकी बात सत्य है पर मै गुरु किसे बनाऊ?
नारायण बोले – हे नारद ! धरती पर चले जाओ और जो व्यक्ति सबसे पहले मिले उसे अपना गुरु मानलो। नारद जी ने प्रणाम किया और चले गए। जब नारद जी धरती पर आये तो उन्हें सबसे पहले एक मछली पकड़ने वाला एक मछुवारा मिला। नारद जी वापस नारायण के पास चले गए और कहा महाराज वो मछुवारा तो कुछ भी नहीं जानता, मैं उसे अपना गुरु कैसे बना लूं?

यह सुनकर भगवान ने कहा नारद जी अपना प्रण पूरा करो। नारद जी वापिस आये और उस मछुवारे से कहा मेरे गुरु बन जाओ, पहले तो मछुवारा नहीं माना बाद में बहुत मनाने से मान गया। मछुवारे को राजी करने के बाद नारद जी लौट कर पुनः भगवान के पास गए और कहा हे भगवान ! मेरे गुरु तो कुछ भी नही जानते है, वह मुझे क्या सिखाएंगे ?

यह सुनकर विष्णु जी को क्रोध आ गया और उन्होंने कहा: हे नारद, गुरु निंदा करते हो जाओ मै आपको श्राप देता हूँ कि आपको 84 लाख योनियों में घूमना पड़ेगा

यह सुनकर नारद जी ने दोनों हाथ जोड़कर कहा हे भगवान ! इस श्राप से बचने का उपाय भी बता दीजिये। भगवान नारायण ने कहा इसका उपाय जाकर अपने गुरुदेव से पूछो। नारद जी ने सारी बात जाकर गुरुदेव को बताई। गुरूजी ने कहा ऐसा करना भगवान से कहना 84 लाख योनियों की तस्वीरे धरती पर बना दे फिर उस पर लेट कर गोल घूम लेना और विष्णु जी से कहना 84 लाख योनियों में घूम आया मुझे छमा कर दीजिए आगे से गुरु निंदा नहीं करूँगा। नारद जी ने विष्णु जी के पास जाकर ऐसा ही किया उनसे कहा 84 लाख योनिया धरती पर बना दो और फिर उन पर लेट कर घूम लिए और कहा नारायण मुझे क्षमा कर दीजिए आगे से कभी गुरु निंदा नहीं करूँगा। यह सुनकर विष्णु जी ने कहा देखा जिस गुरु की निंदा कर रहे थे उसी ने मेरे श्राप से बचा लिया। 

गुरु गूंगे गुरु बाबरे, गुरु के रहिये दास,
गुरु जो भेजे नरक को, स्वर्ग कि रखिये आस 

गुरु चाहे गूंगा हो, चाहे गुरु बाबरा(पागल) हो गुरु के हमेशा दास रहना चाहिए। गुरु यदि नरक को भेजे तब भी शिष्य को यह इच्छा रखनी चाहिए कि मुझे स्वर्ग प्राप्त होगा, अर्थात इसमें मेरा कल्याण ही होगा। यदि शिष्य को गुरु पर पूर्ण विश्वास हो तो उसका बुरा स्वयं गुरु भी नही कर सकते।

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